Info India News I रतन टाटा का नाम भारतीय उद्योग जगत में एक महानायक के रूप में हमेशा याद रखा जाएगा. नेतृत्व की अदम्य क्षमता से उन्होंने टाटा समूह को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा दिया. 1991 में दो बड़ी चीजें घटित हुईं, जिससे भारत का चेहरा भी बदल गया और टाटा ग्रुप का भी. 1991 में एक तरह भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण हुआ था. यही वह साल था, जब टाटा ग्रुप की बागडोर रतन टाटा के हाथों में आई. उन्होंने जब इस ग्रुप की कमान संभाली, तब कंपनी का टर्नओवर महज 4 बिलियन डॉलर था, और 160 बिलियन डॉलर के पार है.
इतना लम्बा सफर तय करने के लिए हर उद्योगपति को कई तरह के फैसले लेने पड़ते हैं, जिनमें कुछ फैसले विवादित हो सकते हैं तो कुछ सबको अच्छे लग सकते हैं. रतन टाटा को सफलता तो मिली, लेकिन इसके लिए उन्होंने अच्छा खास संघर्ष भी किया. चाहे 1991 में पुराने नेतृत्व को चुनौती देना हो या 2016 में साइरस मिस्त्री को हटाने का विवाद, रतन टाटा ने हमेशा अपने ग्रुप और ग्रुप की गरिमा को ध्यान में रखते हुए फैसले लिए. बता दें कि 9 अक्टूबर की रात मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में रतन नवल टाटा का निधन हो गया. लेकिन वे ग्रुप को ऐसी स्थिति में ला चुके थे कि उनके जीवन का मिशन पूरा हुआ माना जा सकता है.
कैसे शुरू हुआ रतन टाटा का करियर
रतन टाटा ने 1962 में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क से आर्किटेक्चर में बी.एस. की डिग्री प्राप्त करने के बाद टाटा परिवार के व्यवसाय में कदम रखा. शुरुआती दौर में उन्होंने टाटा समूह की विभिन्न कंपनियों के कामकाज की बारीकियां समझने के लिए शॉप फ्लोर पर काम किया. 1971 में उन्हें नेशनल रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी का प्रभारी निदेशक नियुक्त किया गया.
1991 में जब उनके पूर्ववर्ती जे.आर.डी. टाटा का स्विट्ज़रलैंड में निधन हुआ, तब उन्होंने समूह की कमान संभाली. यह समय भारत के लिए ऐतिहासिक था, क्योंकि उसी समय भारतीय अर्थव्यवस्था उदारीकरण की ओर अग्रसर हो रही थी. इस आर्थिक सुधार ने भारत में वैश्विक निवेश और उदारीकरण की लहर को जन्म दिया. रतन टाटा को भारत के सबसे पुराने व्यापारिक घरानों में से एक का नेतृत्व करने का मौका मिला, जिसे उन्होंने विश्व स्तर पर पहचान दिलाई. आज टाटा समूह 100 से अधिक देशों में काम करता है और मार्च 2024 में इसका रेवेन्यू 13.68 लाख करोड़ रुपये (165 बिलियन डॉलर) था. रतन टाटा को 2008 में देश के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया था.
रुसी मोदी, दरबारी सेठ और अजीत केलकर को हटाना
रतन टाटा का व्यावसायिक जीवन केवल सफलता की कहानियों से नहीं भरा था, बल्कि उनके सामने कई बार नेतृत्व के लिए संघर्ष भी आए. इन संघर्षों में से दो बड़े संघर्षों ने उन्हें एक अनोखे लीडर के रूप में स्थापित कर दिया.
पहला संघर्ष 1991 में तब हुआ, जब उन्होंने टाटा समूह के चेयरमैन का पदभार संभाला. यह संघर्ष उन पुराने अधिकारियों के साथ था, जो उस समय तक अलग-अलग सेक्टरों में कंपनियों का स्वतंत्र काम संभाल रहे थे. टाटा ने इन ‘सत्ताओं’ को समाप्त कर, समूह के सभी हिस्सों को एक करने का काम किया. उन्होंने छह साल के भीतर ₹4,900 करोड़ (5.9 बिलियन डॉलर) के रेवेन्यू वाले ग्रुप का पुनर्गठन किया, जिसमें टाटा स्टील के रुसी मोदी, टाटा केमिकल्स के दरबारी सेठ और इंडियन होटल्स के अजीत केलकर जैसे लीडर्स को हटाना भी शामिल था. इन तीनों को हटाने के पीछे यूं तो कई वजहें गिनाई जाती रही हैं, मगर कुछ कॉमन कारणों में इन सबका मैनेजमेंट का तरीका, केंद्र में एक पावर का विरोध, बिजनेस में इनोवेशन को लेकर सुस्त रवैया, रतन टाटा द्वारा ग्रुप की कंपनियों में वर्किंग स्टाइल को लेकर किए गए बदलाव से सहमत न होना शामिल थे.
साइरस मिस्त्री के साथ विवाद
दूसरा संघर्ष 2016 में हुआ. इस वक्त रतन टाटा के रिटायर हुए चार साल का वक्त बीत चुका था. उनके रिटायर होने के बाद 2012 में साइरस मिस्त्री को ग्रुप का सर्वे-सर्वा बनाया गया. मिस्त्री ने जब ग्रुप के कर्ज को कम करने की कोशिश की, और कई ऐसी चीजें शुरू करने की दिशा में कदम बढ़ाया, जिससे ग्रुप के लोग असहज थे, तो एक और संघर्ष हुआ.
मिस्त्री को 24 अक्टूबर 2016 को एक विवादास्पद बोर्डरूम तख्तापलट में हटा दिया गया. यह संघर्ष टाटा संस में 18 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाले शापूरजी पल्लोनजी परिवार के साथ भी जुड़ा था, जिनकी टाटा समूह के साथ 70 वर्षों की साझेदारी रही थी. 2020 में मिस्त्री परिवार ने अपनी 18 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने की इच्छा जताई.
रतन टाटा ने फिर से समूह के अंतरिम चेयरमैन के रूप में वापसी की और जनवरी 2017 में नटराजन चंद्रशेखरन को टाटा संस का नेतृत्व सौंपा. चंद्रशेखरन आज भी समूह के प्रमुख बने हुए हैं, और रतन टाटा ‘चेयरमैन एमेरिटस’ की भूमिका निभा रहे हैं.
क्यों हटाया गया था साइरस मिस्त्री को?
साइरस मिस्त्री की टाटा ग्रुप से बर्खास्तगी एक मामला काफी जटिल था. इसमें मैनेजमेंट, बिजनेस स्ट्रैटेजी और व्यक्तिगत मतभेद भी शामिल थे. साइरस मिस्त्री को हटाए जाने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने टाटा ग्रुप के पक्ष में फैसला सुनाते हुए मिस्त्री की बर्खास्तगी को उचित ठहराया. साइमर को हटाए जाने के पीछे निम्नलिखित कारण थे-
विश्वास की कमी: टाटा सन्स के बोर्ड ने मिस्त्री के साथ बढ़ती “विश्वास की कमी” का हवाला दिया था. यह कहा गया कि उनकी नेतृत्व शैली और निर्णय लेने की प्रक्रिया ने कंपनी के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाला है.
प्रदर्शन में गिरावट: मिस्त्री के कार्यकाल के दौरान कंपनी की प्रदर्शन धीमा हो गया था. टाटा ग्रुप ने यह तर्क दिया कि मिस्त्री की रणनीतियों ने कंपनी की साख को नुकसान पहुंचाया.
बिना अनुमति के निर्णय: मिस्त्री ने कुछ महत्वपूर्ण निर्णय बिना बोर्ड की अनुमति के लिए लिए, जैसे कि टाटा संस के शेयरों को गिरवी रखना. यह रतन टाटा और अन्य बोर्ड सदस्यों के लिए एक बड़ा मुद्दा बन गया.
विभिन्न दृष्टिकोण: मिस्त्री ने कुछ परियोजनाओं में निवेश करने और चुनावी चंदा देने के तरीके पर अपने विचार रखे, जो टाटा समूह के अन्य सदस्यों से भिन्न थे. यह भी एक कारण बना कि उन्हें हटाया गया.
5 साल चली थी कानूनी लड़ाई
दिसंबर 2016 में मिस्त्री ने टाटा संस और अन्य के खिलाफ “दुरुपयोग और प्रबंधन” का मामला दायर किया. मार्च 2017 में नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) ने मिस्त्री की याचिका खारिज कर दी. हालांकि, सितंबर 2018 में NCLAT ने मिस्त्री को पुनः कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में बहाल करने का आदेश दिया. जनवरी 2020 में टाटा संस ने NCLAT के निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने NCLAT के निर्णय को यह कहते हुए रद्द कर दिया कि मिस्त्री की बर्खास्तगी उचित थी और कोई दुरुपयोग नहीं हुआ था.